जाने मीडिया के अधिकार के साथ-साथ अन्य वो महत्वपूर्ण अधिकार कि भारतीय संविधान ने हमें क्या-क्या अधिकार और शक्तियाँ प्रदान किये हैं ।

                                  अध्याय 1 .

                        भारतीय संविधान में मीडिया

वर्तमान समय में मीडिया की अहमियत किसी से छिपी हुई नहीं है। ऐसा कहना अनुचित न होगा की आज हम मीडिया युग में जी रहे है।  जीवन के प्रत्येक क्षेत्र और प्रत्येक रंग में मीडिया ने अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया है।

किसी भी लोकतांत्रिक देश में अभिव्यक्ति या बोलने की आजादी काफी मायने रखती है क्योंकिं यदि आज़ादी बने रहे तो व्यक्तियों के बाकी के अधिकार भी बने रहते है।  यदि देखा जाये तो अभिनय,मुद्रित शब्द,बोले गए शब्द और व्यंग्य चित्र आदि के द्वारा मिली अभिव्यक्ति के आज़ादी बाकी के सभी आज़ादियों का मूल है। इसीलिए व्यक्ति की स्वतंत्रता को व्यक्ति का मूल आधार माना गया है। संविधान में मूल रूप से कुल 7 मौलिक अधिकार वर्णित किये थे जिन्हें भाग ३ के अनुच्छेद 12  से 35 तक में विस्तार से बताया गया है।

सन 1976 में 44 वें संविधान संसोधन में सम्पति के अधिकार को मूल अधिकारों में से हटा दिया गया इस प्रकार अब कुल भारतीय नागरिक को कुल ६ अधिकार प्राप्त है :-

समता का अधिकार (अनुच्छेद 14 -18)

स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19)

शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)

धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)

संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार(अनुच्छेद 29 -30)

संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32-34)

हालाकिं संविधान में  प्रेस या मीडिया की स्वतंत्रता का कहीं कोई सीधा उल्लेख नहीं किया गया है।

लेकिन अनुच्छेद 19 में दिए गए स्वतंत्रता के मूल अंधिकार को प्रेस की स्वतंत्रता के समकक्ष माना गया है।

प्रेस की आज़ादी

सर्वोच्च न्यायालय समय-समय पर संविधान के प्रावधानों को स्पष्ट करते हुए प्रेस की आज़ादी की व्याख्या की है। चूकीं मीडिया ,प्रेस का ही और विस्तारित स्वरुप है इसलिए हम मीडिया की आज़ादी को हम प्रेस की आज़दी के समरूप मान सकते है।

सार्वजनिक मुद्दों पर सार्वजनिक रूप से बहस,चर्चा,परिचर्चा।

किसी भी अमेचर का प्रकाशन और मुद्रण।

किसी भी विचार या वैचारिक मत का मुद्रण और प्रकाशन।

किस भी श्रोत से जनहित की सूचनाएं  एवम तथ्य एकत्रित करना।

सरकारी विभागों,सरकारी उपक्रमों सरकारीप्राधिकर्णों और लोकसेवको कार्यों एवम कार्यशैली की समीक्षा करना,उनकी आलोचना करना।

प्रकाशन या प्रकाशन सामग्री का अधिकार अर्थात कौन सी खबर प्रकशित या प्रसारित करनी है।

मीडिया माध्यम का मूल्य/शुल्क निर्धारित करना,माध्यम केप्रचार के लिए नीतितेकरण और अपनी योजनानुसार,सरकारी दबाव से मुक्त रहकर  संबंधी गतिविधि चलाना।

यदि किसी कर के प्रसार पर विपरीत प्रभाव पड़ता हो टॉस कर से मुक्ति।

प्रेस की स्वतन्त्रता में पुस्तिकाएं,पत्रक और सूचना के अन्य  भी सम्मिलित है।

मीडिया की स्वतंत्रता हमेशा  विवाद का  रहा है क्योकिं मीडिया पर न तो पूरी तरह से प्रतिबन्ध लगाना उचित है और न ही इसे हर कानून से  सकता है। इस तरह  फैसले पर पहुचने के लिए न्यायपालिका ,कानून की युक्तियुक्त जाँच करता है। क्योकि संविधान के अनुच्छेद 19(2) में कहा गया है की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर  केवल युक्तियुक्त प्रतिबन्ध ही लगाए जा सकते है। सर्वोच्च न्यायलय ने निम्नलिखित  मामलों में मीडिया पर युक्तियुक्त प्रतिबंध  लगाने को तर्कसंगत ठहराया है।

राष्ट्र की प्रभुता और अखंडता

राज्य की सुरक्षा

विदेशी राज्यों के साथ संबंध

सार्वजनिक व्यवस्था

शिष्टाचार/सदाचार

न्यायालय की अवमानना।

मानहानि।

अपराध को उकसाना

                                     अध्याय 2   

                     मीडिया और मीडिया विधि का इतिहास

जैसा की हम सभी को ज्ञात है की भारत में मीडिया का उद्धभव हिक्की के द्वारा 1780 में पहला भारतीय पत्र हिक्की गजट के नाम से निकला था।

19वीं शताब्दी के प्रारंभ के साथ ही भारत में चेतना की लहर जाग चुकी थी ,और अब तक पत्रकारिता भी अपनी पकड़ जनमानस में बनाने लगी थी।लेकिन जब पत्रकारिता अपना  पैर पसारना प्रारंभ ही किया था की ब्रिटिश हुकूमत ने भारतीय प्रेस पर अंकुश लगाना प्रारम्भ कर दिया था। जिनमें प्रेस पर सेंसर ,अनुज्ञप्ति नियम,पंजीकरण नियम,देशी भाषा समाचार अधिनियम और समाचार पत्र  अधिनियम जैसे प्रमुख कानून लगाए गए थे।

ब्रिटिश हुकूमत के द्वारा भारतीय पत्रकारिता पर लगाए गए कुछ प्रमुख कानून इस प्रकार है।

प्रेस नियंत्रण अधिनियम

भारतीय पत्रकारिता पर सबसे पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी के सासन कल मे सन 1799 मे प्रैस नियंत्रण अधिनियम लागू किया | इस अधिनियम के द्वारा समाचार- पत्र के संपादक ,मुद्रक और स्वामी का नाम स्पष्ट रूप से अखबार मे प्रकाशित करना अनिवार्य कर दिया | इसके अलावा इस अधिनियम द्वारा यह भी अनिवार्य का र्डिया गया की प्रकशन से पूर्व , प्रकाशित किए जाने वाले असमाचर को प्रकाशक ,सरकारी सचिव को देंगे और सचिव द्वारा अनुमोदन के बाद ही किसी समाचार को प्रकाशित किया जा सकेगा |

इस प्रकार इस अधिनियम के द्वारा प्रैस की आजादी की पूरी तरह से गला घोंट दिया गया |सान 1807 मे पुस्तकों ,पत्रिकाओ और यहा तक की पम्प्फ़्लेतों को भी इस अधिनियम का दंड मिलता था लार्ड हेस्टिंग्स ने सेससोरशिप अधिनियम को समाप्त कर ,संपादकों के मार्गदर्शन के लिए ऐसे नियम बनाए जिससे पत्र-पतरकरिता मे ऐसे समाचार न छाप पाये जो ब्रिटिश सरकार के खिलाफ हो |

1823 के अनुज्ञप्ति नियम

अ॰ प्रत्येक प्रकाशक व मुद्रक को सरकार से लाइसेंस प्राप्त करना होगा | बिना लाइसेंस के प्रकशन पर 400 रुपए जुर्माना या कारावास का दंड दिया जा सकता था

ब॰ सरकार किसी भी समाचार-पत्र का लाइसेंसे रध कर सकती थी |इसके बाद आये गवर्नर जनरल ,विलियम बैंटिक ने यधपि लाइसेंसे अधिनियम 1823 को समाप्त नहीं किया |

1857 का अनुज्ञप्ति अधिनियम

1875 के गदर के कारण सरकार ने एक बार फिर भारतीय प्रैस को प्रतिबंदित कर दिया | चूंकि यह एक संकटकालीन व्यवस्था थी अत: एक वर्ष बाद यह वयवस्ता समाप्त हो गयी और मेटकफ़ द्वारा बनाए गए नियम पूना:लागू हो गए |

1867 क पंजीकरण अधिनियम

मेटकफ़ के नियमो को 1857 मे ‘पंजीकरण अधिनियम  ‘के रूप मे परिवर्तित कार दिया गया| यह अधिनियम प्रैस की स्वतंतत्रा को सीमित नहीं करता था |इसके अनुसार ,प्रकासक को प्रकासन के एक माह के भीतर पुस्तक की एक प्रति बिना मूल्य के सरकार को देनी होती थी |

देशी भाषा समाचार-पत्र अधिनियम1878 ,    (वर्णाकुलर प्रेस एक्ट )

1987 क ईआईएस अधिनियम मे सरकार ने भारतीय समाचार-पात्रो पर अधिक कडा अंकुश लगाने का प्रयत्न किया | इस अधिनियम के मजिस्ट्राटों को यह अधिकार भी दिया गया की वे किसी भी भारतीय भाषा के समाचार-पत्र के प्रकासक से यह आश्वासान ले की कोई भी ऐसे सामाग्री परकाशित नहीं करेगा जिसेसे शांति भंग होने की आशंका ही |

1881 मे लार्ड रिपन ने वर्णाकुलर प्रेस एक्ट को समाप्त कार दिया परंतु बाद मे लार्ड करजन ने भारतीय दंड सहिंता मे  नए प्रावधान करके भारतीय प्रैस की स्वतंत्रा को पूना: प्रतिबंदित करने की जो शुरुवात की वह आगे स्वंतत्राता प्राप्ति तक चलती रही |

समाचार-पत्र अधिनियम 1908

लार्ड कर्ज़न की दमनकारी नीतियो से भारतीय ने व्यापक असंतोष पैदा हुआ तथा उससे उत्तेजित होकरा क्रांतिकरियों ने कुछ हिंसात्मक करवाइया भी की |समकालीन समाचार-पात्रो ने इसके लिए सरकार की तीव्र आलोचना की | विद्रोह को दबाने के लिए सरकार ने 1908 मे एक अधिनियम पारित किया जिसमे मजिस्ट्रेट को यह अधिकार दिया गया था की वे ऐसे समाचार-पत्र अथवा उसकी संपाती को जब्त कार ले जो आपतिजनिक सामाग्री छापता हो |

भारतीय समाचार –पत्र अधिनियम 1910 

इस अधिनियम द्वारा भारतीय प्रैस और अंकुश लगाया गया सरकार को जमानत जप्त करने और पंजीकारण राद्ध करने का अधिकार दिया गया | अधिनियम के लागू होने के बाद 5 वर्षो मे सरकार द्वारा लगभग 5 लाख की जमानते जब्त की गयी |

सन 1921 मे तत्कालीन वायसराय की काउंसिल के विधि सदस्य तेज बहादुर सप्रू की अध्यक्षता मे एक समाचार पत्र समिति की नियुक्ति की गयी बाद मे समिति की सिफ़ारिश पर 1908 और 1910 के नियम रद्ध कर दिये गए |

20वी शताब्दी के चौथे दशक मे स्वंत्रतता आंदोलन के तीव्रतर होने के कारण समाचार-पत्रो पर अधिक नियंत्रण करने के उद्देश्यय से सन 1930 मे सरकार ने एक नया समाचार-पत्र अध्यादेश जारी किया जिससे अनुसार 1920 के अधिनियम की व्यवस्थाए पून: लागू कर दी गयी |

सन 1932 मे सरकार ने दो और अधिनियम पारित किए इनमे एक था ,क्रिमिनल ला अमेंडमेंट एक्ट ,जो 1931 के अधिनियम का ही विस्तार था | इसके द्वारा 1931 के अधिनियम की धारा (4) को और अधिक व्यापक बना दिया गया और इनमे सभी गतिविधिया शामिल कर दी गयी जिनसे सरकार की प्रभुसत्ता को हानी पहुंचायी जा सकती थी |

सरकार द्वारा दीन प्रतिदिन कड़े जा रहे अंकुशों से छुटकारा पाने के लिए प्रेस को संहठित करने के प्रयास 1939 मे किए गये जब ‘द इंडियन एंड इस्टेर्न न्यूज़ पेपर सोसाइटी’ की स्थापना हुयी |सोसाइटी के उद्देशयो मे भारत  ,बर्मा और श्रीलंका की प्रेस के लिए एक केन्द्रीय संस्था के रूप मे कम करना ,सदसयो के उन व्यवसिक हितो की सुरक्षित रखते हुए उन्हे विकसित करना जो सरकार ,विधायिका या न्यायालय द्वारा दुष्प्रभावित हुये हो ,व्यावहारिक रुचि के किसी विषय पर सूचना एकत्र करना और इसे सदस्य देशो तक पाहुचना ,समान्य हितो को प्रभावित करने वाले विषयो पर पारसपरिक सहयोग विकसित करना ,शामिल था

1939 मे भारतीय सुरक्षा कानून नियम को प्रेस प र्भी लागू कर दिया गया | इस व्यवस्था के अंतर्गत भारतीय प्रेस पर लगाए गए प्रतिबंधों पर विचार-विमर्श करने के लिए  दी हिन्दू के संपादक श्रीनिवासन की अध्यक्षता मे 1940 मे दिल्ली मे एक सम्मेलन बुलाया गया | उसके बाद एक दूसरी बैठक मे परिणामस्वरूप  आल इंडिया न्यूज़पेपरसंघ की स्थापना हुयी |

दूसरी और प्रेस को पंगु बनाने की सरकारी प्रक्रिया चलती रही | अगस्त ,1942 मे सरकार ने कुछ और प्रतिबंध लगाए जिनका संबंध नागरिक उपद्रवों से संभदीत समाचारो क सीमित करना,संवदाताओ का पंजीकरण करना ,तोड़- फोड़ से संबंदीत समाचारो को प्रकाशन को प्रतिबंदित करना था |स्वाभाविक रूप से समाचार-पात्रो ने इसका विरोध किया और ‘नेशनल हेराल्ड’ ,इंडियन एक्सप्रेस  और हरिजन ने तो अपना प्रकासन ही बंद कर दिया |

स्पष्ट है की दमनकारी नीतियो व कड़े अंकुश के बावजूद भारतीय प्रेस भारतवासियों को जाग्रत करने ,विभिन्न क्रांतिकारी विचारो से उन्हे अवगत करने तथा स्वाधीनता संग्राम मे उल्लेखिय योगदान देने मे सफल रहा |

 प्रेस की आजादी के लिए संघर्ष

19वी सदी की शुरुवात मे जब भारत मे चेतना की  लहरे लेने लगी थी तो मनवाधिकारों और मीडिया की आजादी के सवाल को गंभीरता के साथ महसूस किया जाने लगा था | जैसे –जैसे ब्रिटिश सरकार ने प्रेस पर दबाव डालने की कोशीश की तो इन कोशिशो का विरोध भी अंगडाई लेने लगा | सन 1824 ई॰ मे प्रेस पर अंकुश लगाने वाले एक कानून के खिलाफ राजा राममोहन राय ने सूप्रीम कोर्ट को एक ज्ञापन भेजा ,जिसमे उन्होने लिख की –‘’हर अच्छे साशक को इस बात की फिक्र होनी चाहिए की वह लोगो को ऐसे साधन उपलब्ध करवाए जिसके जरिये उन समस्याओ और मामलो की सूचना ,सशन को जल्द से जल्द मिल सके |

पत्रकारिता के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा सजा पाने वाले पहले भारतीय थे सुरेन्द्रनाथ बनर्जी  |वे राष्ट्रिय आंदोलन को जन्म देने वाले नेताओ मे से एक थे | श्री बनर्जी को एक मुकदमे के फैसले के खिलाफ लिखने के लिए दो महीने क कैद की सजा दी  गयी | 1881 मे मराठी भाषा मे केसरी और अंग्रेजी मे मराठा नाम से दो अखबारो का प्रकाशन शुरू किया तिलक ने राष्ट्रिय की भावना का प्रचार प्रसार करने का एक और अधभूत तरीका खोजा |

गांधी जी ने यंग इंडिया मे कुछ लेख लिखे थे | इन लेखो को लिखने पर ब्रिटिश सरकार ने सन 1992 मे गांधी जी पर धारा 124 (ए) के तहत राजद्रोह के आरोप मे मुकदमा चलाया और उन्हे भी बाल गंगाधर तिलक की भांति ही छह साल की कैद की सजा सुना दी गयी | इस प्रकार हुमे देखते है की स्वतंत्रता –पूर्व की भारतीय पत्रकारिता ने अपनी शक्ति का प्रयोग ,जनता क शिक्षित करने ,उसमे राजनैतिक व राष्ट्रिय चेतना जगाने और आम जनता को प्रेरित व प्रोतशाहित करने मे किया

                  अध्याय 3

       संसद के विशेषाधिकार और मीडिया

चूकि विधायिका और मीडिया दोनों का ही सरोकार लोकहित से जुड़े है ,इसीलिए विधायिका और मीडिया का बहुत गहरा अंतरसंबंध है ।

जब  रिपोर्टर विधायिका का रिपोर्टिंग करता है ,तो उसको संसद के विशेषाधिकार को ध्यान में रखकर रिपोर्टिंग करना चाहिए। अभिप्राय संसद और विधान सभाओं दोनों से है।

हालांकि पहले कई देशों में संसदीय कार्यवाही के दौरान रिपोर्टिंग वर्जित था  विधायिका  महत्व को  समझ लिया है,इसलिए आज अधिकतर लोकतांत्रिक राष्ट्रों में संसदीयकार्यवाही के प्रकाशन और प्रसारण संबंधी कोई प्रतिबन्ध नहीं है | भारत में भी सत्र के दौरान संसद में चलने वाली कार्यवाही का सीधा प्रसारण ,प्रसार भारती के दिल्ली दूरदर्शन द्वारा किया जाता है

विशेषाधिकार :- विशेषाधिकार का सीधा सा अर्थ है ,किसी व्यक्ति वर्ग या समुदाय को सामान्य से अलग कुछ असामान्य अधिकार प्राप्त होना |ऐसे अधिकार विशेषाधिकार के अंतर्गत आता है क्योकिं ये अधिकार आम लोगों को प्राप्त नहीं होते है |ये अधिकार कुछ विशेष लोगों को विशेष होने के कारण जो अधिकार मिलते है विशेषाधिकार है |

संसदीय  विशेषाधिकार :- आम लोग संसदीय विशेषाधिकार का अर्थ ,संसद के विशेषाधिकारों से लेते है लेकिन तकनिकी रूप से ऐसा नहीं है ।जैसा की हम जानते है की संसद में लोक सभा,राज्य सभा के साथ-साथ महामहिम राष्ट्रपति भी समाहित होते है ।भारतीय संविधान में जिन विशेषाधिकारों को वर्णित किया गया है वे विशेषाधिकार केवल दोनों सदनों ,उनकी समितियां को और उनके सदस्यों को ही प्राप्त है ।

भारतीय संविधान में अनुच्छेद 105 संसद और 194 विधान्मंदलों के विशेषाधिकारों का वर्णन किया गया है।एवं 105(३) में सांसद की शक्तियों 194(3) में विधायकों के शक्तियों (विशेषाधिकार) को बताया गया है ।

भारतीय संविधान में यह कहा गया है  की जब तक संसद या विधानमंडल ऐसा कोई कानून नहीं बनाती तब तक सदस्यों की शक्तियों और विशेषाधिकार के मामले में स्थिति वही रहेगी जो “हाउस ऑफ़ कामंस” की थी |अभी तक कानून बनाकर विशेषाधिकार को प्रभावित नहीं किया गया |जैसा की हम जानते है की ब्रिटेन में कोई लिखित संविधान नहीं है इसलिए २६ जनवरी 1950 को वहां विशेषाधिकार की क्या स्थिति थी ,इसे सहिंता बद्ध या लीपिबद्ध नहीं किया गया है ।

भारत के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश और बाद में भारत के उपराष्ट्रपति (सभापति) बने न्यायमूर्ति एम.हिदायतुल्ला ने संसदीय विशेषाधिकारों के संबंध में निम्नलिखित निष्कर्ष दिए:-

संसद को अपने विशेषाधिकारों का निर्णय करने का पूर्ण अधिकार है |

विशेषाधिकारों का विस्तार क्या हो और इनका प्रयोग सदन के भीतर कब किया जाये ,इस बारे में भी अंतिम निर्णय संसद का ही होगा |

अपनी अवमानना के लिए दोषी व्यक्ति को सजा देने का अधिकार भी संसद को ही है |संसद ही यह फैसला कर सकती है की अवमानना क्या है |

संसद को जुर्माना लगाने का अधिकार है |

संसद,सत्र के दौरान किसी व्यक्ति को नजरबन्द तो कर सकती  है लेकिन सत्रावसान के तुरंत बाद नजरबंद व्यक्ति को छोड़ना होगा |

संसद या विधानमंडल न्यायलयों द्वारा भेजे गए सम्मनों को स्वीकार करेंगे और आवश्यकता पड़ने पर सुनवाई के दौरान अपने प्रतिनिधि भेजेंगे।

सदन के माननीय सदस्यों को सत्र के दौरान किसी दीवानी मामलों में गिरफ्तार नहीं किया जा सकता लेकिन अन्य प्रकार के मामलों में उन्हें सत्र के दौरान भी गिरफ्तार किया जा सकता है |

संविधान प्रदत्त संसदीय विशेषाधिकार और उन्मुक्तियां

संविधान के अनुच्छेद 105 के अंतर्गत संसद सदस्य को और अनुच्छेद 194 के अंतर्गत राज्यों की विधान सभा के सदस्यों को एक समान संसदीय विशेषाधिकार प्राप्त हैं।

अनुच्छेद 105(1) एवं 194(1) के अनुसार, प्रत्येक सदस्य को संसद में वाक् स्वातंत्र्य प्राप्त होगा किंतु यह स्वतंत्रता इस संविधान के प्रावधानों तथा संसद की प्रक्रिया का विनियमन करने वाले नियमों और आदेशों के अधीन होगी।

सदन में किसी सदस्य के द्वारा कही गई किसी बात या दिए गए किसी मत के संबंध में उसके विरुद्ध किसी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी और सदन के प्राधिकार के अधीन प्रकाशित किसी प्रतिवेदन, पत्र, मतों या कार्यवाहियों के प्रकाशन के संबंध में भी कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी।

अनुच्छेद 105(3) एवं 194(3) के अनुसार, अन्य मामलों में सभी विशेषाधिकार औेर उन्मुक्तियां वही होंगी जो संविधान (44वां संशोधन) अधिनियम, 1978 के पूर्व थीं, किंतु पूर्व में इस विषय पर कोई लिपिबद्ध संहिता नहीं है। अतः शेष विशेषाधिकार परंपरानुसार नियत होते हैं।

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 135 क (1.2.1977 से लागू) के अनुसार, सदन के चालू रहने के दौरान या किसी अधिवेशन या बैठक या सम्मेलन के 40 दिन पूर्व या पश्चात किसी सदस्य को किसी सिविल आदेशिका के अधीन गिरफ्तार या निरुद्ध नहीं किया जा सकता है।

                                अध्याय 4

                 सरकारी कर्मचारी-अधिकारी और मीडिया

भारतीय संविधान में प्रत्येक भारतीय नागरिक को अभिव्यक्ति की आज़ादी का मूल अधिकार दिया गया है| मीडिया और प्रेस के सन्दर्भ  में सरकारी सेवारत व्यक्तियों को कई नियमों का  पालन करना होता है |सरकारी  सेवारत व्यक्ति और  मीडिया के सन्दर्भ  में अलग से कोई अधीनियम तो नहीं है लेकिन सरकार द्वारा समय-समय पर जरी किये आदेशों और विभिन्न कानूनों में इस सन्दर्भ में दिए गये प्रावधानों की रोशनी में ही सरकारी कर्मचारियों व अधिकारीयों को मीडिया से संबंधित कार्य करने पड़ते है |

भारत सरकार द्वारा केन्द्रीय सिविल सेवक नियम बनाये गए है ,जिसमें बता  गया है  की किसी सिविल सेवक को किस  प्रकार का व्यवहार या  आचरण करना चाहिए |

सरकार के बिना पूर्वानुमति के कोई सरकारी सेवक,पुर्णतः या अंशतः न तो किसी समाचार-पत्र आवधिक प्रकाशन का स्वामी हो सकता है और न  ही  वह उसका प्रबंधक हो सकता है |वह ऐसे प्रकाशनों का संपादन भी बीना नहीं कर सकता है |

अपनी सरकारी जिम्मेदारियों के अलावा कोई भी सरकारी सेवक,सरकार  या प्राधिकृत अधिकारी के पूर्वानुमति के बिना निम्नलिखित कृत्य नहीं ककर सकता :

(क)स्वयं या किसी प्रकाशक  के द्वारा पुस्तक का प्रकाशन

(ख)  किसी पुस्तक के लिए कोई लेख आदि लिखना अथवा लेखों को संकलित/सम्पादित करना ;

(ग)  रेडियो प्रसारण में भाग लेना ;

(घ) अपने  स्वयं के नाम,किसी दूसरे के नाम या किसी अन्य  नाम से या फिर किसी और व्यक्ती के  नाम से किसी समाचार पत्र या आवधिक प्रकाशन के लिए लेख,पत्र आदि लिखना |मीडिया संबंधी निम्नलिखित कृतियों के लिए सरकारी  सेवक को सरकार से अनुमति /पूर्वानुमति लेने की आवश्यकता नहीं है :-(क)यदि पुस्तक आदि का प्रकाशन,किसी प्रकाशक के द्वारा होता है और पुस्तक की सामग्री,वैज्ञानिक,कलात्मक या साहित्यिक प्रकार की है |

(ख)          यदि रेडियो आदि पर प्रसारण अथवा समाचार-पत्र आदि के  लिए लिखे गए लेख आदि पूर्णतः  साहित्यिक ,वैज्ञानिक या कलात्मक प्रकार के हों|

भारत सरकार के संबंधित निर्णय  :

1.आल इंडिया रेडियो में भाग लेने और इसके बदले में शुल्क प्राप्त करने के लिए अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है | (भारत सरकार,गृह मंत्रालय,कार्यालय ज्ञापन संख्या 25/32/56 (ए),15 जनवरी 1957)

मीडिया संबंधी कोई कृत्य को सम्पादित करने के  लिए यदि सरकारी सेवक अपने प्राधिकृत अधिकारी  से अनुरोध करता है और उसे अगले 30 दिन तक कोई जवाब नहीं मिलता है तो अनुमति मानी जाएगी|(भारत सरकार,व्यैक्तिक और प्रशिक्षण विभाग,कार्यालय ज्ञापन संख्या 11013/2/88(ए),दिनांक 7 जुलाई,1988 एवं 30 दिसम्बर 1988)

भारत सरकार का संबंधित निर्णय

कोई भी  सरकारी सेवक अपने विदेश यात्रा के दौरान भारतीय या विदेशी  संबंधों पर किसी मौखिक या  लिखित बयान के द्वारा  टिप्पणी नहीं कर सकता उसे संबंधित राजदूत  की लिखित पूर्वानुमति पर किया जा  सकता है |(भारत सरकार,गृह मंत्रालय,कार्यालय ज्ञापन संख्या 25/71/51 दिनांक 17 अक्टूबर,1951)

                                  अध्याय 5 

               न्यायालय की अवमानना और मीडिया           

जैसा की हमलोगों को ज्ञात है की भारतीय संविधान के अनुसार न्यायपालिका को स्वतंत्र रखा गया  है,जो संघ और राज्य की विधियों को देख-रेख करने का काम करती है | इस  पूरी प्रणाली के शीर्ष पर भारत का सर्वोच्च न्यायालय है |

न्यायपालिका और मीडिया के बिच गहरा संबध है | अख़बारों के अधिकांशतः जगह और  टेलीविजन समाचार चैनलों के अधिकांश समय पर अपराध से संबंधित समचार ही कब्ज़ा जमाये रखता है | किसी अपराध का अंतिम निर्णय न्यायालय में ही होता है ,इसीलिए पत्रकारों को अक्सर न्यायालयों से रिपोर्टिंग करनी पड़ती है | न्यायालय रिपोर्टिंग करते समय  बड़ा ही सावधानी  बरतना पड़ता है कारण की थोडा सा भी  अचूक होते ही।न्यायालय अवमानना की तलवार मीडिया कर्मी पर लटक जाता है |

 न्यायालय अवमानना

अदालत की अवमानना के मामले में इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि आपका इरादा अवमानना करने का था या नहीं. जब कोई मामला अदालत में चल रहा हो तो रिपोर्टिंग पर कई तरह की पाबंदियाँ लगी हो सकती हैं, जिनमें से कुछ अपने-आप लागू होती हैं और कुछ अदालत के निर्देश पर लगाई जाती हैं.

न्यायालय अवमानना अधिनियम, 1971 के अंतर्गत  है| अधिनियम की धारा 2(ए)(बी) और (सी) में बताया गया है,

ए दीवानी या फ़ौजदारी दोनों तरह से कोर्ट की अवमानना हो सकती है.

बी यदि किसी न्यायालय के निर्णय/डिक्री/आदेश/निर्देश/ याचिका अथवा न्यायालय की किसी प्रक्रिया का जानबूझकर उल्लंघन किया जाए या न्यायालय द्वारा दिए गए किसी वचन को जानबूझकर कर भंग किया जाए, तो यह न्यायालय की दीवानी अवमानना होगी.

सी  किसी प्रकाशन, चाहे वह मौखिक/लिखित/सांकेतिक या किसी अभिवेदन या अन्य किसी कृत्य द्वारा,बदनाम या बदनाम करने की कोशिश या अभिकरण/न्यायालय को नीचा दिखाने की कोशिश की जाए.

किसी न्यायिक प्रक्रिया में पक्षपात या हस्तक्षेप

न्यायिक व्यवस्था में किसी प्रकार के हस्तक्षेप या उसे बाधित करना/ बाधित करने की कोशिश करना न्यायालय की अवमानना हो सकेगा।